अथाह समुन्दर की गोद में
उछलती खेलती जलतरंगें
सहस्त्रों मोतियों के हार पहने
लहर, अप्सरा-सी रंग-उमंगें।
सोचती हूँ-
कितनी समीपता है
सागर और लहर में
जितनी समीपता दिवारात्रि की
सान्ध्य पहर में,
जितनी समीपता है
मानव और पवन की
जितनी समीपता है
आलेखन और प्रतिबिंब की,
और इसमें खाईयाँ
होती हैं धरती और गगन की
सागर लरजता है चुपचाप
लहरों का उठना-मिटना
काम अपनी लगन का
वह अमर है
पर इसका रूप क्षण-क्षण का।
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