प्रथम रश्मि के पड़ते ही
मैंने माँगा था अमृत
अबोध, असहाय, निर्बल को
जननी ने दिया था अमृत
किया था जीवित……
आज माँगती वही अमृत
जग वालों से तो
मौन क्यों हो जाते
क्या एक घूँट में
सर्वस्व उसका खो जाता?
मैं देव तो नहीं
दधिचि से अस्थिचर्म माँग लेती
मैं द्रोण तो नहीं
एकलव्य से अंगूठा माँग लेती
मैं इंद्र तो नहीं
कर्ण से कवच-कुण्डल माँग लेती
मैं वामन तो नहीं
बलि से तीनो लोक माँग लेती
मानव हूँ माँगा था
मानवता का गान,
रिश्तों के बीच
गरिमा-अभिमान,
नारी हूँ माँगा था
अपना अधिकार,
नन्ही सी दुनिया में
थोड़ा सा प्यार दुलार !
पर; तुमने क्या दिया?
ईर्ष्या, द्वेष, हिंसा का हलाहल
और सिखाया चलाओ मर्म पर कुदाल !
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