बह पिपासित चला जा रहा था आकुल, जलाशय की खोज में…. सुनसान, बियावान रेतीलें टीलों को पार…
अरी ओ कल्पने, समेट-समेट शीशे-से टुकड़े-टुकड़े छितराये सपने पर देख चाहे परकटे पंछी हों या पिपासित हिरन…
वह मंदिर सदैव बंद रहता था मृत ज्वालामुखी के समान अकस्मात्- एक दस्तक हुई शायद आया हो…
थाल लेकर बढ़ती हूँ देवमंदिर की ओर पर; कदम रूक जाते द्वार पर किस देवता को पूजूँ…
मेरी पलायनवादी कविता सुन मही का कण-कण बोल उठा ऐ कवयित्री ! इस कलयुग को मत दोष…
(जयशंकर प्रसाद के प्रति) तुमने अतीत की गहराई में संपूर्ण कृति को डुबोया था, अंतराल से मुक्तामणि…
पूछते ये सभी उल्कापात क्या होता है? मेरा जवाब-तारों का टूटना मैं नहीं जानती थी किस-किस का…
कल्पना बढ़ती है सीमा की ओर और सीमा भागती है उससे बहुत दूर पर; कल्पना हारती नहीं …
गुमसुम है पेंड खफा-खफा भी इतने दिन कहाँ थी? आज पूछ रही हाल-चाल अब प्रस्थान का समय…
मेरी हास्य -व्यंग्य रचना बारिश की याद दिलाती है।😀😆 काहे कोयल शोर मचाये रे मोहे अपना कोई…