(जयशंकर प्रसाद के प्रति)
तुमने अतीत की
गहराई में संपूर्ण कृति को
डुबोया था,
अंतराल से
मुक्तामणि निकाला था।
वह अनमोल रत्न
वर्तमान के संदूकों में
आज भी सुरक्षित चमचमाता है
पता है यह मणि
कभी मलिन नहीं होगा,
भविष्य की दीवारों को
इसी तरह सुशोभित करेगा
क्योंकि सभ्यता की नगरी में
होता हमेशा उतार-चढ़ाव ।
मानव भागना चाहता
अतीत की जंजीरों को तोड़कर
सुनहरे भविष्य की ओर
पर; उसी बादल की तरह
फिर मुड़ जाता पीछे की ओर,
आकाश से धरती की ओर
सपनों से हकीकत की ओर।
रह-रह छा जाता
वही गहन अंधकार
ऐसे में तुम्हारे पात्र
मल्लिका, ध्रुवस्वामी, कोमा
मनु, श्रद्धा, चंद्रगुप्त आते हैं।
अंधेरे को दूर करने
हाथों में दीप माला
‘हिमाद्रि तुंग-श्रृंग से’
तुम्हारे नायकों के हैं गान
विश्व-गुरू मेरा भारत
हमें है उस पर अभिमान ।
जल उठी जोशीले
रणवीरों की चिता
तुमने अतीत की गहराइयों से
निकाला मणिमुक्ता ।
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