मेरी पलायनवादी कविता सुन
मही का कण-कण बोल उठा
ऐ कवयित्री !
इस कलयुग को मत दोष दो।
न भूलें यह आर्य निष्ठाओं का देश है
और कर्मवाद आर्य की है सूक्तियाँ
ओ अमर्त्यपुत्र !
क्यों भाग्य पर रोते हो
देख अनजान पथ क्यों अधीर होते हो?
ऐ कवयित्री !
सृष्टिकर्ता को मत दोष दो।
क्योंकि ब्रह्म तक पहुँचने के लिए
जपना पड़ता है
कनक सा निखरने के लिए
तपना पड़ता है
ऐ कवयित्री !
तप्रनेवालों को मत ओस दो।
ओ सूरज की ओर भागने वालों
आसमां को छूने वालों
मत लौटो पीछे की ओर
मानवी इतिहास भी रोता है बादल-सा
अतीत के पन्ने न उलटो बार-बार
ऐ कवयित्री!
अतीतवादियों को मत जोश दो।
Comments