बह पिपासित 

चला जा रहा था 

आकुल, जलाशय की खोज में…. 

सुनसान, बियावान 

रेतीलें टीलों 

को पार कर दो घूँट पानी के लिए, 

कहीं दिखे कोई हरीतिमा 

कहीं मिलें ठंडी छाँह, 

आशा-निराशा के बीच 

चढ़ती-उतरती जिंदगी 

अभी मंजिल बहुत दूर है, 

अभी चलना बहुत दूर है। 

परछाइयों को देख 

यों न इतराइए 

चलना है चलते जाइये 

काफिलों के बीच 

मुसाफिर तन्हा-तन्हा है 

कोई प्यास नहीं बुझायेगा 

जरूरत पड़ी तो 

तुम्हारा लहू पी जायेंगे 

आज फिर कोई 

शिकार हो गया

मृगतृष्णा का !

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Poems,

Last Update: 2025-01-03

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