अरी ओ कल्पने,

समेट-समेट

शीशे-से टुकड़े-टुकड़े

छितराये सपने

पर देख

चाहे परकटे पंछी हों

या पिपासित हिरन

गाना ना तेजाब गाने

जिसका एक छींटा

बना देता है सहस्त्र फफोले

और न गुह्यता को

नग्न करना

पेरिस्कॉप की तरह

हाँ,

बहना धीरे-धीरे

अंतर्खावी

फल्गु की तरह।

(फल्गु-जमीन के भीतर बहती नदी)

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Poems,

Last Update: 2025-01-03

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