अरी ओ कल्पने,
समेट-समेट
शीशे-से टुकड़े-टुकड़े
छितराये सपने
पर देख
चाहे परकटे पंछी हों
या पिपासित हिरन
गाना ना तेजाब गाने
जिसका एक छींटा
बना देता है सहस्त्र फफोले
और न गुह्यता को
नग्न करना
पेरिस्कॉप की तरह
हाँ,
बहना धीरे-धीरे
अंतर्खावी
फल्गु की तरह।
(फल्गु-जमीन के भीतर बहती नदी)
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